वह दिन भी कितने, ही सुहाने थे
ढ़ूँढ़ा करते जब मिलने के बहाने थे
अब इन रोशनियों में सुकूँ नहीं यहाँ
खूबसूरत वही घर के दीये पुराने थे
अब कहाँ बचे वो शजर इस बस्ती में
कभी हुआ करते जहाँ आशियानें थे
दिल में हौसला हो तो नामुकिन नहीं
वो शहर बसाना जहाँ बसे वीराने थे
शमा की चाहत में फ़ना होते परवाने
लोग समझते हैं शायद वह दीवाने थे
—सुनीता
shukriya Abhiskek ji
ReplyDeleteबहूत ही बेहतरीन कथ्य वा भाव
ReplyDeleteshukriya satish ji
ReplyDeleteसुन्दर बेहतरीन प्रस्तुति आपकी। हार्दिक बधाई
ReplyDeleteएक नज़र :- हालात-ए-बयाँ: जज़्बात ग़ज़ल में कहता हूँ